surdas ke pad : अगर आप प्रसिद्ध surdas ke pad ढूँढ रहे हैं। तो हमारे पास है 20+ surdas ke pad in hindi है। ये प्रसिद्ध पद प्रसंग और अर्थ सहित हैं। ये surdas ke pad प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सूरसागर’ का भाग “भ्रमर गीत” है। उसका पुनः डॉ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा अनुवादित “भ्रमर गीत सार” के पद शामिल हैं।
सूरदास
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परिचय :
सूरदास जी के जन्म स्थान तथा जन्म तिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों के अनुसार 1478ई° में हुआ। उत्तर प्रदेश,मे आगरा – मथुरा मार्ग पर स्थित एक गांव में हुआ। कुछ इनका जन्म स्थान दिल्ली के निकट सीही गाँव को मानते हैं। सन् 1580 ई° में इनकी मृत्यु हो गई।
श्रीमदभागवत गीता के पदों के गायन में सूरदास जी की रुचि बचपन से थी। आगे चलकर भक्ति का एक पद सुनकर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इनको अपना शिष्य बना लिया। सूरदास जी अष्टछाप के कवियों ने सर्वश्रेष्ठ कवि माने गए हैं। अष्टछाप का संगठन वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने किया।
रचनाएँ :
(क) सूरसागर :
सूरदास जी का यह रचना ग्रंथ श्रीमदभागवत गीता पर आधारित है। जिसमें 1 लाख से अधिक पद थे। उनमें से अब लगभग 10,000 पद ही उपलब्ध हैं। सूरदास के पदों में कृष्ण भक्ति की प्रधानता है। इसे 2 भागों में विभाजित किया गया है-
- कृष्ण बाल लीलाएं
- भ्रमर-गीत
(ख) सुर – सारावली :
यह ग्रंथ सूरसागर का ही एक भाग माना जाता है जिसमें 1107 पद है।
(ग) साहित्य – लहरी :
यह ग्रंथ किसी एक विशेष विषय की विवेचना नहीं करता। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं, अलंकारों, कहीं – कहीं कृष्ण बाल लीलाओं और महाभारत की कथाओं के अंश मिलते हैं।
भ्रमर-गीत :
यह सूरदास जी के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ सूरसागर का विशिष्ट भाग हैं। जिसमें कृष्ण जी उधो के द्वारा गोपियों तक योग संदेश पहुचते है। इसमें गोपियों की विरह – अग्नि, कृष्ण से मिलने तथा उनके संदेश संदेश मिलने के बाद की स्थितियों को पदों में दर्शाया गया है। गोपियाँ केवल कृष्ण को प्रेम करती थी। इसलिए किसी भी पराए व्यक्ति को देखना नहीं चाहती थी। तो उस समय एक भंवरे को माध्यम बना कर गोपियां अपनी बात उधो को बोलती हैं। इसलिए इसे भ्रमर-गीत कहते हैं।
प्रसंग :
प्रस्तुत सभी पद्यांश हिन्दी साहित्य की कृष्ण भक्ति धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि “सूरदास” जी। द्वारा रचित विशिष्ट ग्रंथ “सूरसागर” के प्रसिद्ध भाग ” भ्रमर-गीत” के अनुवादित रूप ” भ्रमर-गीत सार” से लिए गए हैं। जिनके रचियता डॉ. रामचंद्र शुक्ल हैं।
पद
surdas ke pad – ऊधौ,तुम हो अति बड़भागी.
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ऊधौ,तुम हो अति बड़भागी.
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी.
अर्थः उधो तुम बहुत भाग्यशाली हो। क्योंकि तुम श्रीकृष्ण के सबसे करीब हों।
फिर भी तुम्हें उनसे स्नेह ना हुआ। और न ही तुम उनके अनुरागी हुए।
प्रेम की छाप तुम्हारे मन पर नहीं पड़ी।
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पुरइनि पात रहत जल भीतर,ता रस देह न दागी.
अर्थः कमल जो होता है। वो पानी में रहता है पर पानी उसको छु भी नहीं पाता।
वैसे ही तुम भी श्रीकृष्ण के साथ रहते हो पर उनका प्रेम तुम्हें छु नहीं पाया।
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ज्यों जल मांह तेल की गागरि,बूँद न ताकौं लागी.
अर्थः जिस प्रकार तेल लगे हुए घङे को पानी में डुबोते है।
और जल की एक भी बूंद छु नहीं पाती।
उसी प्रकार श्रीकृष्ण का प्रेम तुम्हें छु नहीं पाया।
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प्रीति-नदी में पाँव न बोरयौ,दृष्टि न रूप परागी.
अर्थः अभी तक तुमने श्रीकृष्ण की प्रेम नदी में पाउं भी नहीं डुबोया पूरा शरीर तो क्या डूबेगा।
तुम्हें उनका प्रेम थोड़ा सा भी नहीं मिला।
तुम तुम प्रत्येक समय उनके साथ रहते हो फिर भी तुम उनकी दृष्टि में मिग्ध नहीं हो पाए।
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‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यों पागी.
अर्थः गोपियां ये कहती हैं हम तो अबला और भोली हैं।
जो श्रीकृष्ण के प्रेम में पड़ गई. हम उनके प्रेम में ऐसी हो गई हैं।
गुड़ के लिए चीटियां, चींटी चाहे तो भी गुड़ से अलग नहीं हो सकती।
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surdas ke pad – मन की मन ही माँझ रही.
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मन की मन ही माँझ रही.
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही.
अर्थः हमारे मन की अभिलाषा, ईच्छा मन में ही रह गई।
क्योंकि हमें श्रीकृष्ण के आने की आशा थी पर उन्होंने तुम्हें भेजा।
उधो आप ही बताइए हम कहाँ जाए, किसको अपना दुख बताए।
कोई दिखाई नहीं दे रहा। और और प्रेम की बात किसी को बताई भी नहीं जा सकती है।
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अवधि असार आस आवन की,तन मन विथा सही.
अर्थः समय ही आधार था। जिसने हमें श्रीकृष्ण के आने की आशा दी।
इसी आशा के सहारे हमने तन – मन की यथा को सहन किया।
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अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि,विरहिनि विरह दही.
अर्थः अब बिछङने के कारण जो विरह अग्नि हैं।
वह और अधिक हो चुकी है।
श्रीकृष्ण के इन संदेशों को सुन – सुनकर।
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चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं, उर तैं धार बही .
अर्थः उन्हें श्रीकृष्ण से आशा थी। उनकी विरह – वेदना को शांत करेंगे।
पर वही उन्होंने योग संदेश के द्वारा विरह की धारा बहा दी है।
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‘सूरदास’अब धीर धरहिं क्यौं,मरजादा न लही.
अर्थः अब हम धर्य क्यों रखें। जब श्रीकृष्ण ने ही प्रेम की मर्यादा का पालन नहीं किया।
वे खुद आने के बजाय ये योग संदेश भेजा। अब उन्होंने कोई मर्यादा ही नहीं रखी जो हम धर्य रखें।
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surdas ke pad – हमारे हरि हारिल की लकरी.
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हमारे हरि हारिल की लकरी.
मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ करि पकरी.
अर्थः हमारे लिए तो श्रीकृष्ण हारिल की लकड़ी के समान है।
हमारे हृदय में वे मन, कर्म, वचन से समा चुके हैं।
और इतनी दृढ़ता से हमारे हृदय ने उनको पकड़ा हुआ है।
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जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि,कान्ह-कान्ह जकरी.
अर्थः जागते – सोते, दिन – रात, सपनों में सभी जगह बस कान्हा – कान्हा की धुन सवार है।
हमारे हृदय में केवल उनसे मिलने की आशा। उनके नाम की जाप हृदय में लगी रहती है।
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सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यौं करूई ककरी.
अर्थः जिस प्रकार एक कड़वी ककड़ी होती है।
श्रीकृष्ण का योग संदेश हमें उसी के समान लग रहा है।
कड़वी ककड़ी में जैसे कोई रस नहीं होता।
वैसे ही ज्ञानमार्ग और योग में हमें कोई रस नहीं दिखता।
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सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी.
अर्थ: ये जो योग संदेश तुम लेकर आए हों।
वह ऐसी बीमारी है जिसके बारे में हमने ना कभी सुना, ना देखा और ना कभी भोगा।
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यह तौ ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपौ,जिनके मन चकरी.
अर्थः तुम यह जो योग संदेश लेकर आए हों।
उन्हीं को दो जिनका मन चक्करों में पड़ा होता है।
हमने तो अपना मन श्रीकृष्ण पर टिका रखा है।
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surdas ke pad – हरि हैं राजनीति पढि आए.
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हरि हैं राजनीति पढि आए.
समुझी बात कहत मधुकर के,समाचार सब पाए.
अर्थ : श्रीकृष्ण ने मथुरा जाकर राजनीति पढ़ ली है।
भौरे, को गोपियां कहती हैं ये बात हम पहले ही समझ गयी हैं।
अब हमें समाचार भी मिल भी गया है. वो बदल चुके हैं।
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इक अति चतुर हुतै पहिलें हीं,अब गुरुग्रंथ पढाए.
अर्थः श्रीकृष्ण तो पहले से ही इतने चतुर – चालाक थे।
और अब तो उन्होंने गुरु – ग्रंथ भी पढ़ लिए है।
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बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी , जोग सँदेस पठाए.
अर्थः अब श्रीकृष्ण की बुद्धि बहुत अधिक बढ़ चुकी है।
जो आपके हाथों ये योग संदेश भिजवाया।
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ऊधौ लोग भले आगे के, पर हित डोलत धाए.
अर्थः उधो, तुम तो बहुत भोले हो जो प्राहित करने के लिए यहाँ आए।
जो तुम उनके संदेश को लेकर आए।
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अब अपने मन फेर पाईहें, चलत जु हुते चुराए.
अर्थः जो मन श्रीकृष्ण जाते समय चुरा कर लेकर चले गए।
वो अब वापस आ जाएगा उनका ऐसा व्यवहार देखकर।
अब वे हमारे मन से निकल जायेंगे। और हमारा मन हमारा होगा।
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तें क्यौं अनीति करें आपुन,जे और अनीति छुड़ाए.
अर्थः श्रीकृष्ण, जो पहले खुद दूसरों को अनीति करने से रोकते थे।
वे खुद अब अनीति कर रहे हैं।
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राज धरम तो यहै’सूर’,जो प्रजा न जाहिं सताए।
अर्थः राजा का तो यही धर्म होता है वह प्रजा को ना सताए।
परंतु उन्होंने तो राज धर्म का भी पालन नहीं किया।
क्योंकि वह अब राजा हैं तो उन्हें अपनी प्रजा (गोपियों) को नहीं सताना चाहिए।
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