सुमित्रानंदन पंत कविताएं : अगर आप सुमित्रानंदन पंत कविताएं (sumitranandan pant poems) ढूँढ रहे हैं। तो हमारे पास है 5 प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत कविताएं । ये सभी कविताएं प्रसंग सहित हैं। ये विभिन्न भाव आधरित कविताएं हैं।
सुमित्रानंदन पंत
पंत जी का जन्म 20 मई 1900 में उत्तराखंड के कौसानी गाँव में हुआ। ये हिंदी साहित्य के छायावाद युग के स्तम्भ कवियों में से एक माने जाते हैं। इन्हें हिन्दी साहित्य का प्रवर्तक कवि कहा जाता है। 28 दिसंबर 1977 को इलाहाबाद में इनका निधन हुआ।
1. सुमित्रानंदन पंत कविताएं – पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस
प्रसंग – प्रस्तुत कविता ‘पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस’ हिन्दी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है।
काव्यांश – 1
चिर प्रणम्य यह पुष्य अहन, जय गाओ सुरगण,
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!
नव भारत, फिर चीर युगों का तिमिर-आवरण,
तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,
आज खुले भारत के संग भू के जड़-बंधन!
काव्यांश – 2
शान्त हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण,
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!
आम्र-मौर लाओ हे ,कदली स्तम्भ बनाओ,
पावन गंगा जल भर के बंदनवार बँधाओ ,
जय भारत गाओ, स्वतन्त्र भारत गाओ!
उन्नत लगता चन्द्र कला स्मित आज हिमाँचल,
चिर समाधि से जाग उठे हों शम्भु तपोज्वल!
लहर-लहर पर इन्द्रधनुष ध्वज फहरा चंचल
जय निनाद करता, उठ सागर, सुख से विह्वल!
काव्यांश – 3
धन्य आज का मुक्ति-दिवस गाओ जन-मंगल,
भारत लक्ष्मी से शोभित फिर भारत शतदल!
तुमुल जयध्वनि करो महात्मा गान्धी की जय,
नव भारत के सुज्ञ सारथी वह नि:संशय!
राष्ट्र-नायकों का हे, पुन: करो अभिवादन,
जीर्ण जाति में भरा जिन्होंने नूतन जीवन!
स्वर्ण-शस्य बाँधो भू वेणी में युवती जन,
बनो वज्र प्राचीर राष्ट्र की, वीर युवगण!
लोह-संगठित बने लोक भारत का जीवन,
हों शिक्षित सम्पन्न क्षुधातुर नग्न-भग्न जन!
मुक्ति नहीं पलती दृग-जल से हो अभिसिंचित,
संयम तप के रक्त-स्वेद से होती पोषित!
मुक्ति माँगती कर्म वचन मन प्राण समर्पण,
वृद्ध राष्ट्र को, वीर युवकगण, दो निज यौवन!
काव्यांश – 4
नव स्वतंत्र भारत, हो जग-हित ज्योति जागरण,
नई प्रभात में स्वर्ण-स्नात हो भू का प्रांगण!
नव जीवन का वैभव जाग्रत हो जनगण में,
आत्मा का ऐश्वर्य अवतरित मानव मन में!
रक्त-सिक्त धरणी का हो दु:स्वप्न समापन,
शान्ति प्रीति सुख का भू-स्वर्ग उठे सुर मोहन!
भारत का दासत्व दासता थी भू-मन की,
विकसित आज हुई सीमाएँ जग-जीवन की!
धन्य आज का स्वर्ण दिवस, नव लोक-जागरण!
नव संस्कृति आलोक करे, जन भारत वितरण!
नया-जीवन की ज्वाला से दीपित हों दिशि क्षण,
नव मानवता में मुकुलित धरती का जीवन!
2. सुमित्रानंदन पंत कविताएं – जग जीवन में जो चिर महान
प्रसंग – प्रस्तुत कविता ‘जग जीवन में जो चिर महान’ हिन्दी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है।
जग-जीवन में जो चिर महान,
सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण,
मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ!
जिसमें मानव-हित हो समान!
जिससे जीवन में मिले शक्ति,
छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति;
मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
मिट जावें जिसमें अखिल व्यक्ति!
दिशि-दिशि में प्रेम-प्रभा प्रसार,
हर भेद-भाव का अंधकार,
मैं खोल सकूँ चिर मुँदे, नाथ!
मानव के उर के स्वर्ग-द्वार!
पाकर, प्रभु! तुमसे अमर दान
करने मानव का परित्राण,
ला सकूँ विश्व में एक बार
फिर से नव जीवन का विहान!
3. सुमित्रानंदन पंत कविताएं – काले बादल
प्रसंग – प्रस्तुत कविता ‘काले बादल’ हिन्दी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है।
काव्यांश – 1
सुनता हूँ, मैंने भी देखा,
काले बादल में रहती चाँदी की रेखा!
काव्यांश – 2
काले बादल जाति द्वेष के,
बादल विश्व क्लेश के,
काले बादल उठते पथ पर
नव स्वतंत्रता के प्रवेश के!
सुनता आया हूँ, है देखा,
काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा!
काव्यांश – 3
आज दिशा हैं घोर अँधेरी
नभ में गरज रही रण भेरी,
चमक रही चपला क्षण-क्षण पर
झनक रही झिल्ली झन-झन कर!
नाच-नाच आँगन में गाते केकी-केका
काले बादल में लहरी चाँदी की रेखा।
काव्यांश – 4
काले बादल, काले बादल,
मन भय से हो उठता चंचल!
कौन हृदय में कहता पलपल
मृत्यु आ रही साजे दलबल!
आग लग रही, घात चल रहे, विधि का लेखा!
काले बादल में छिपती चाँदी की रेखा!
काव्यांश – 5
मुझे मृत्यु की भीति नहीं है,
पर अनीति से प्रीति नहीं है,
यह मनुजोचित रीति नहीं है,
जन में प्रीति प्रतीति नहीं है!
काव्यांश – 6
देश जातियों का कब होगा,
नव मानवता में रे एका,
काले बादल में कल की,
सोने की रेखा!
4. सुमित्रानंदन पंत कविताएं – मिट्टी का गहरा अंधकार
प्रसंग – प्रस्तुत कविता ‘मिट्टी का गहरा अंधकार’ हिन्दी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है।
सृष्टि
मिट्टी का गहरा अंधकार
डूबा है उसमें एक बीज,–
वह खो न गया, मिट्टी न बना,
कोदों, सरसों से क्षुद्र चीज!
उस छोटे उर में छिपे हुए
हैं डाल-पात औ’ स्कन्ध-मूल,
गहरी हरीतिमा की संसृति,
बहु रूप-रंग, फल और फूल!
वह है मुट्ठी में बंद किए
वट के पादप का महाकार,
संसार एक! आश्चर्य एक!
वह एक बूँद, सागर अपार!
बन्दी उसमें जीवन-अंकुर
जो तोड़ निखिल जग के बन्धन,–
पाने को है निज सत्व,–मुक्ति!
जड़ निद्रा से जग कर चेतन!
आः, भेद न सका सृजन-रहस्य
कोई भी! वह जो क्षुद्र पोत,
उसमें अनन्त का है निवास,
वह जग-जीवन से ओत-प्रोत!
मिट्टी का गहरा अन्धकार,
सोया है उसमें एक बीज,–
उसका प्रकाश उसके भीतर,
वह अमर पुत्र, वह तुच्छ चीज?
5. सुमित्रानंदन पंत कविताएं – श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति
प्रसंग – प्रस्तुत कविता ‘श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति’ हिन्दी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित है।
छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा
अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा
मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत–
गलित ललित आलोक राशि, चिर अकलुष अविजित!
स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मंदिर
शिल्पि, बनाया,– ज्योति कलश निज यश का घर चित्त।
शिलीभूत सौन्दर्य ज्ञान आनंद अनश्वर
शब्द-शब्द में तेरे उज्ज्वल जड़ित हिम शिखर।
शुभ्र कल्पना की उड़ान, भव भास्वर कलरव,
हंस, अंश वाणी के, तेरी प्रतिभा नित नव;
जीवन के कर्दम से अमलिन मानस सरसिज
शोभित तेरा, वरद शारदा का आसन निज।
अमृत पुत्र कवि, यश:काय तव जरा-मरणजित,
स्वयं भारती से तेरी हृतंत्री झंकृत।
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