कबीरदास के दोहे : अगर आप प्रसिद्ध कबीरदास के दोहे (kabirdas ke dohe) ढूँढ रहे हैं। तो हमारे पास है 20+ प्रसिद्ध कबीरदास के दोहे । ये सभी दोहे अर्थ तथा प्रसंग सहित हैं।
कबीरदास
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कबीर जी के जन्म को लेकर विद्वानों में मतभेद है। इनका जन्म 1398 ई. में हुआ। पर जन्मस्थल को लेकर अलग अलग मत है। कुछ काशी, कुछ मगहर तथा कुछ आज़मगढ़ मानते हैं। अधिकतर ने काशी का समर्थन किया।
कबीर जी का जन्म एक विधवा महिला से हुआ। जिन्होंने इन्हें नदी में फेंक दिया। नदी से इन्हें नीरू और नीमा नामक दंपत्ति जुलाहों ने अपनाया। इनका नाम कबीर उन्होंने ही रखा। कबीर जी की पत्नि – लुई, पुत्र – कमाल, पुत्री – कमाली थे। कबीर जी के गुरु रामानन्द थे। इनकी मृत्यु 1518 ई. में मगहर में हुई।
रचनाएं –
कबीर जी को शिक्षा प्राप्त नहीं थी। वे अनपढ़ थे। इनकी रचनाओं को धर्मदास द्वारा संग्रहित किया गया। इसे “बीजक” नाम से जाना जाता है।
बीजक के तीन भाग हैं –
क). साखी – इसमें दोहों तथा छंदों को लिखा गया है।
ख). सबद – इसमें इनके संगीतात्मक गाए जाने वाले पद शामिल हैं।
ग). रमैनी – इसमें चौपाई, दोहे छंद के रूप में लिखित है। इसमें रहस्यवादी, दार्शनिक विचार शामिल हैं।
कबीरदास के दोहे – गुरु महिमा
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गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
अर्थः गुरु में और पारस – पत्थर में अन्तर है। यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है। परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥
अपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो। परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये।
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं॥
गुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उनकी आज्ञा पर चलो। कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य – सेवक को तीनों लोकों से भय नहीं है।
कबीरदास के दोहे – आचरण की महिमा
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कवि तो कोटि कोटि हैं, सिर के मूड़े कोट |
मन के मूड़े देखि करि, ता संग लिजै ओट ||
करोडों – करोडों हैं कविता करने वाले, और करोडों है। सिर मुड़ाकर घूमने वाले वेषधारी। परन्तु ऐ जिज्ञासु! जिसने अपने मन को मूंड लिया हो, ऐसा विवेकी सतगुरु देखकर तू उसकी शरण ले।
जौ मानुष ग्रह धर्म युत, राखै शील विचार |
गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच सेवा सार ||
जो ग्रहस्थ – मनुष्य गृहस्थी धर्म – युक्त रहता, शील विचार रखता, गुरुमुख वाणियों का विवेक करता। साधु का संग करता और मन, वचन, कर्म से सेवा करता है। उसी को जीवन में लाभ मिलता है।
कबीरदास के दोहे – संगति की महिमा
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कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि हो जो सेत |
मूरख होय न अजला, ज्यों कालम का खेत ||
कोयला भी उजला हो जाता है जब अच्छी तरह से जलकर उसमे सफेदी आ जाती है। लकिन मुर्ख का सुधरना उसी प्रकार नहीं होता जैसे ऊसर खेत में बीज नहीं उगते।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध |
कबीर संगत साधु की, कटै कोटि अपराध ||
एक पल आधा पल या आधे का भी आधा पल ही संतों की संगत करने से मन के करोडों दोष मिट जाते हैं।
कबीर संगति साधु की, निष्फल कभी न होय |
ऐसी चंदन वासना, नीम न कहसी कोय ||
संतों की संगत कभी निष्फल नहीं होती। मलयगिर की सुगंधी उड़कर लगने से नीम भी चन्दन हो जाता है। फिर उसे कभी कोई नीम नहीं कहता।
कबीरदास के दोहे – सेवक की महिमा
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आशा करै बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल |
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ||
आशा तो स्वर्ग की करता है। लकिन तीनों काल में दुर्बुद्धि से रहित नहीं होता। बलि ने गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा अनुसार नहीं किया। तो राज्य से वंचित होकर पाताल भेजा गया।
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहुँ जाय |
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ||
सन्त कबीर जी समझाते हुए कहते हैं। कि अपने सतगुरु के न्यायपूर्ण वचनों का उल्लंघन करता है। वो सेवक अन्याय की ओर जाता है, वह जहाँ जाता है वहाँ उसके लिए काल है।
कबीरदास के दोहे – भक्ति की महिमा
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भक्ति बीज पलटै नहीं, जो जुग जाय अनन्त |
ऊँच नीच घर अवतरै, होय सन्त का सन्त ||
की हुई भक्ति के बीज निष्फल नहीं होते चाहे अनंतो युग बीत जाये। भक्तिमान जीव सन्त का सन्त ही रहता है। चाहे वह ऊँच – नीच माने गये किसी भी वर्ण – जाती में जन्म ले।
जब लग नाता जाति का, तब लग भक्ति न होय |
नाता तोड़े गुरु बजै, भक्त कहावै सोय ||
जब तक जाति – भांति का अभिमान है। तब तक कोई भक्ति नहीं कर सकता। सब अहंकार को त्याग कर गुरु की सेवा करने से गुरु – भक्त कहला सकता है।
भक्ति बिन नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय |
शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ||
कोई भक्ति को बिना मुक्ति नहीं पा सकता चाहे लाखो लाखो यत्न कर ले। जो गुरु के निर्णय वचनों का प्रेमी होता है। वही सत्संग द्वरा अपनी स्थिति को प्राप्त करता है।
कबीरदास के दोहे – काल की महिमा
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बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावे थाल |
आवन जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ||
तेरे पुत्र का जन्म हुआ है, तो क्या बहुत अच्छा हुआ है? और प्रसंता में तू क्या थाली बजा रहा है? ये तो चींटियों को पंक्ति के समान जीवों का आना जाना लगा है।
जो उगै सो आथवै, फूले सो कुम्हिलाय |
जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ||
उगने वाला डूबता है, खिलने वाला सूखता है। बनायी हुई वस्तु बिगड़ती है, जन्मा हुआ प्राणी मरता है।
कबीरदास के दोहे – उपदेश की महिमा
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ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय |
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ||
मन के अहंकार को मिटाकर। ऐसे और नम्र वचन बोलो, जिससे दूसरे लोग सुखी हों और खुद को भी शान्ति मिले।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत |
गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ||
इस संसार का झमेला दो दिन का है। अतः इससे मोह – संबध न जोड़ो। सतगुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुख देने वाला है।
देह खेह होय जागती, कौन कहेगा देह |
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह ||
मरने के बाद तुमसे कौन देने को कहेगा! अतः निश्चयपूर्वक परोपकार करो, येही जीवन का फल है।
कबीरदास के दोहे – शब्द की महिमा
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मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार |
हते पराई आत्मा, जीभ बाँधि तरवार ||
कितने ही मनुष्य जो मुख में आया, बिना विचारे बोलते जी जाते हैं। ये लोग परायी आत्मा को दुःख देते रहते है। अपने जिव्हा में कठोर वचनरूपी तलवार बांधकर।
एक शब्द सुख खानि है, एक शब्द दुःखराखि है |
एक शब्द बन्धन कटे, एक शब्द गल फंसि ||
समता के शब्द सुख की खान है, और विषमता के शब्द दुखो की ढेरी है। निर्णय के शब्दो से विषय – बन्धन कटते हैं, और मोह – माया के शब्द गले की फांसी हो जाते हैं।
Thank you so much ❤️ sir / ma’am I hope you enjoy it.
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